● ग़ज़ल : 291 – मत ठोंक-पीट मुझको
मत ठोंक-पीट मुझको , गर हो सके तो सहला ।।
अब सह न पाउँगा मैं , सच वार कोई अगला ।।
उनकी नज़र में था मैं , कल तक दिमाग़ वाला ,
हूँ आज एक अहमक़ , बेअक़्ल और पगला ।।
कहते हैं वो उन्होंने , सूरत को देख मेरी ,
समझा था मुझको क्या-क्या , लेकिन मैं कुछ न निकला ?
लेते हैं लोग-बाग अक्सर ख़ून-वून करके ,
लूँगा मैं ले के ख़ुद ही , की जाँ जहाँ से बदला ।।
जिसको भी देखिए वो , आ-आ बजा के चल दे ,
जैसे कि मेरा दिल इक , ढोलक हो या हो तबला ।।
लोहे के दुश्मनों को , कल ख़्वाब में पटककर ,
फूलों सरीखा रौंदा , कीड़ों के जैसा मसला ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति