■ मुक्तक : 984 – इल्तिजा
मछली सा तैरूँ बाज़ों , सा उड़ दिखाऊँ उनको ,
बन जाऊँ केंचुआ या , इक कामयाब ग़ाज़ी ।।
सच कह रहा हूँ चाहे , जिसकी क़सम खिला लो ,
मैं जीत कर बता दूँ , हारी हर एक बाज़ी ।।
मजनूँ सा ख़ाक सहरा की छानने मैं चल दूँ ;
फ़रहाद सा पहाड़ों को काटने में चल दूँ ;
बस एक बार मेरी , हो जाए इल्तिजा पर ,
मुझसे वो फिर महब्बत , करने को यार राज़ी ।।
( ग़ाज़ी = नट , रस्सी पर चलने का करतब दिखाने वाला )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति