■ मुक्तक : 995 – घाघरा
मुझको औरत न कहो आदमी हूँ मैं यारों ,
ग़म में पतलून से जो घाघरा मैं हो बैठा ।।
दर्द ना क़ाबिले बर्दाश्त हो गया था तो ,
मर्द होकर भी सरेआम मैं भी रो बैठा ।।
अपने जज़्बात सँभाले नहीं सँभल पाए ,
दिल के अरमाँ तो दबाने से और उछल आए ,
लड़ गई आँख थी हिरनी से शेर था तो क्या ,
अपने दिल से मैं उसी वक़्त हाथ धो बैठा ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
बहुत बहुत शुक्रिया ।
Wah !!!!
Kya gajab ka lekh hai sir.
Vakai me aap hira aur lal hain
शुक्रिया