■ मुक्तक : 1006 – नवी
लोग दक़्यानूसी कहते , थे सभी जिसको , मेरी ,
अज़ सरापा आँख को , बिलकुल नवी लगती रही !!
जाने थी किस गाँव की मैं , पूछ भी पाया नहीं ,
हाँ ! अदाओं से बड़े से , शह्र की लगती रही !!
जो भी कुछ करती थी लगता , था कि सब मा’क़ूल है ।
भूलकर भी उसके हाथों , से न होती भूल है ।
सोचता हूँ आज भी तनहाई में हैरान हो ,
वो सरासर थी ग़लत पर , क्यों सही लगती रही ?
( दक़्यानूसी = बहुत पुराना , बूढ़ा / अज़ सरापा = सिर से पाँव तक / मा’क़ूल = उचित )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Nice Sr, apki mehnat ko salaam
शुक्रिया ।