[] नज़्म : 05 – डायरी
इक इशारे पे मैं उसके क्या हुआ लँगड़ा व लूला ,
उसने मेरे प्यार को फिर ज़िन्दगी भर ना क़बूला ?
सोच में हफ़्तों-महीनों क्या मैं सालों साल से था ,
अपनी उस रूदादे ग़म को जो मरी होते ही पैदा ,
कोई भी मेरा नहीं हमराज़ जिससे कह सकूँ मैं ,
लिख रहा हूँ डायरी में इस भरोसे पर कि कुछ हो ,
चल रहा बारह महीनों से जो दिल में , कम , बगूला ।।
बस नहीं शादीशुदा , हूँ बाल-बच्चों का पिता भी ,
बल्कि उनकी उम्र भी शादी की हो बैठी मगर मैं ,
आज तक भी मेरे इज़हारे मोहब्बत पर वो उसका ,
मेरे पहले ख़त को पढ़कर फाड़ मुँह पर मार देना ,
कोशिशों पर कोशिशें दिन-रात करके भी न भूला ।।
मुझको उसकी ख़्वाहिशें , अर्मानो-हसरत सब पता थे ,
वह मुझे हरगिज़ न चाहेगी बख़ूबी जानता था ,
मैं मगर था हुस्न पर उसके फ़िदा कुछ इस क़दर सब –
भूलकर औक़ात अपनी उसको उससे माँग बैठा ;
उसने मेरी इस तलब का ख़ूब हर्ज़ाना वसूला ।।
चाहता था आँख से तस्वीर उसकी फाड़ डालूँ ,
ख्व़ाब सब डसने को बढ़ते साँप के फन से कुचल दूँ ,
वह जो दिख जाती तो कस के बंद कर लेता था आँखें ,
पर गुजर जाती तो चुप के दूर तक मैं देखता था ;
आज भी नज़रों में झूले उन नज़ारों का ही झूला ।।
पूछता हूँ क्या कोई दिल टूटकर जुड़ता नहीं है ?
इश्क़ में जो बढ़ गया क्या फिर कभी मुड़ता नहीं है ?
अब भी है कोशिश की उसको मैं सिरे से भूल जाऊँ ,
या चबालूँ ज़ह्र या फंदा गले कस झूल जाऊँ ।।
कैसे अब भोंकूँ छुरा छाती में वो जो तब न हूला ?
( रूदादे ग़म = प्रेम व्यथा का वृत्तांत / बगूला = बवंडर / हूला = भोंका )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति