● ग़ज़ल : 294 – बिगड़ा
पुर्ज़ा-पुर्ज़ा हो ज़मीं पर आज भी बिखरा हूँ मैं ।।
तब का बिगड़ा अब तलक थोड़ा नहीं सुधरा हूँ मैं ।।
मुझको धक्का देके लुढ़काया गया है इस जगह ,
अपनी मर्ज़ी से बुलंदी से नहीं उतरा हूँ मैं ।।
जो मुझे दिल से पुकारे उसकी सुन लेता हूँ झट
मुँह से जो चिल्लाए उसके वास्ते बहरा हूँ मैं ।।
मुझको नदियों की तरह दिन-रात चलने की सज़ा ,
कब कहीं पल भर समंदर की तरह ठहरा हूँ मैं ?
मैं बनावट में यक़ीनन एक बँगला हूँ मगर ,
दरहक़ीक़त अपने अंदर तंग इक कमरा हूँ मैं ।।
पूछ मत क्यों उस तरफ़ का रुख़ भी मैं करता न अब ,
जिस गली से पहले लाखों मर्तबा गुजरा हूँ मैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति