● ग़ज़ल : 296 – ख़्वाहिश
न आँधी से मैं घबराऊँ , न तूफ़ाँ ही डराएँ सच !!
डराएँ अब नहीं मुझको , न जाने क्यों ख़ज़ाएँ सच ?
क़सम जब-जब उठाता हूँ , मैं भूलों के न करने की ,
कि तब-तब और भी होने , लगें मुझसे ख़ताएँ सच ।।
मेरे जलते हुए घर पर , वो ऐसे फेंकते पानी ,
लगे जैसे दियों को फूँककर बच्चे बुझाएँ सच ।।
चले आए हैं जबसे वो , मेरी हस्ती में हैराँ हूँ ,
मुझे हरगिज़ नहीं लगतीं , बलाएँ अब बलाएँ सच ।।
बड़े सजधज के वो जाने , कहाँ जाने को हैं निकले ,
कहो उनसे अकेले में , न मुझसे मिलने आएँ सच ?
इधर ख़ूब अक़्ल जाने है , वो मुड़कर भी न देखेंगे ,
उधर पूरे यक़ीं से दिल , उन्हें देवे सदाएँ सच !!
ज़माना आ चुका है वक़्ते रुख़्सत मुझसे मिलने को ,
मेरी अटकी है इसमें जाँ , कि वो भी देख जाएँ सच ।।
ये मेरी आख़िरी ख़्वाहिश , है जो मारें मुझे जाँ से ,
जनाज़े को मेरे काँधे , फ़क़त वे ही लगाएँ सच ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति