मुक्तक : 1022 – मंच
अब नसीहत के लिए लिखने में है ख़तरा बहुत ,
अब जरीआ ये नहीं हरगिज़ रही तम्बीह का ।।
जिसको पढ़-सुन बस हॅंसी ही आए वो ही वो लिखो ,
रंच भर भी उसमें पुट चाहे रहे न सहीह का ।।
मत करो संजीदगी की बात सच कहता हूॅं मैं ,
बस लतीफ़ागोई करना सीख लो रट चुटकुले ,
मंच पर अब नक़्लची और मस्ख़रों का दौर है ,
शायरी ख़ालिस वसीला आजकल तफ़्रीह का ।।
( जरीआ =माध्यम / तम्बीह =चेतावनी / सहीह =सत्य / लतीफ़ागोई =चुटकुलेबाजी / ख़ालिस =विशुद्ध / वसीला =साधन / तफ़्रीह =मनोरंजन )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति