[] नज़्म : 11- सफ़ाई
हॅंस रहा हूॅं मैं जो ग़म से रोज़ खेला इसलिए ।।
ख़ुश है वो उसने न अब तक दर्द झेला इसलिए ।।
कितने लोगों से मोहब्बत के लिए हुमका ये दिल ?
जिस्म का जुग़्राफ़िया कितनों का भाया ऑंख को ?
शख्स़ियत कितनों की मुझको खेंचती लंबा रही ?
जाने कितनों की अदाओं पर मैं था जाॅं से फ़िदा ?
हाय शायद हूॅं अभी तक मैं अकेला इसलिए ।।
मुझ पे मॅंडलाती रहीं कितने दिनों तक बदलियाॅं ?
अब्र फट पड़ने को मुझ पर रात दिन बेताब थे ,
बदलियों से कह रहा था कान में जब कोई यह-
“मैं हूॅं रेगिस्तान” यह बादल ने भी छुप सुन लिया ;
मुझको तज नदियों में जा पहुॅंचा वो रेला इसलिए ।।
बचपने के मुझमें बचपन में भी कब थे कुछ निशाॅं ?
कमसिनी में भी बुज़ुर्गाना मेरा क्यों तौर था ?
अपनी नंगी मुफ़्लिसी को ढाॅंपने के वास्ते ;
अपने पापी पेट को ख़ुद पालने को क्या कहूॅं ?
काम ही करता रहा हरगिज़ न खेला इसलिए ।।
कौन है , कैसा है अब मुझ को बख़ूबी है पता ,
अब नहीं आसाॅं पटकना मुझको धोखा दे यहाॅं ,
लड़खड़ा कर भी चलूॅं अब तो भी मैं गिरता नहीं ,
तब सॅंभल कर चलके भी कुछ खा गया था ठोकरें ,
शह्र में उस वक़्त था मैं इक नवेला इसलिए ।।
( अब्र =मेघ / जुग़्राफ़िया =भूगोल / मुफ़्लिसी =निर्धनता / नवेला =नया )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति