मुक्तक : 1062 – देखना
हो जब बेख़बर तू मैं तब देखता हूॅं ।। तुझे रूबरू होके कब देखता हूॅं ? मगर इतना तै […]
हो जब बेख़बर तू मैं तब देखता हूॅं ।। तुझे रूबरू होके कब देखता हूॅं ? मगर इतना तै […]
रंजो-ग़म के लंबे चौड़े जाल में भी सच , चाहकर भी भूलकर भी मैं न फॅंसता हूॅं ।। मुस्कुराना […]
कभी सूर्य के कान दोनों पकड़कर , उसे फूॅंककर फिर बुझा फिर जलाना ।। कभी चाॅंद को मुट्ठियों में […]
कब हमें बिस्तर मिले आराम की ख़ातिर ।। और जब-जब भी मिले तो नाम की ख़ातिर ।। ज़िंदगी अपनी […]
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