साया

जो थककर दरख़्तों के साये में आकर ,
मैं बैठे हूॅं जब-जब भी आराम करने ;
मिले चंद लम्हों में वो चुस्ती-फ़ुर्ती ,
कि मैं फिर से उठ-उठ लगूॅं काम करने ।।
कि जैसे ॲंधेरों में किरनें लुभातीं ,
मुझे सायों में ऐसे धूपें सुहातीं ,
यक़ीनन मेरा दिल यही चाहता है ,
यहीं बस यहीं पर सुब्हो-शाम करने ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति