मुक्तक: शौक़
बेशक़ मैं यह काम करूॅं रोज़ाना लेकिन , यह मेरा व्यवसाय नहीं , उद्योग नहीं है ।। मैं कोशिश […]
बेशक़ मैं यह काम करूॅं रोज़ाना लेकिन , यह मेरा व्यवसाय नहीं , उद्योग नहीं है ।। मैं कोशिश […]
होके मछली ज़मीं पे दौड़ूॅं मैं , बनके हाथी मैं उछलूॅं मेंढक सा ।। बाज से पंख रख भी […]
जिस तरह भी बन पड़ा पर दिल पे रखकर , फ़िक्र का एक-एक पर्वत ढो दिया है ।। कट […]
मेरा जज़्बा मेरी माॅं के लिए सबसे जुदा है ।। है मेरे वास्ते क्या वो ; मेरे दिल पे […]
जाने कब से , जाने किसको , जाने क्यों मैं ढूॅंढता हूॅं ? हर कली के लब तबस्सुम को […]
ख़्वाहिश में जिसकी दुनिया से उम्र भर लड़े हैं , अब भी उसी को पाने की ज़िद पे हम […]
कितना तक़्दीर का मारा हूॅं ; सच ! बिचारा हूॅं ? जिसकी लज़्ज़त का न सानी जहान में होगा […]
वहाॅं पर लेटकर हमने बहुत आराम फ़रमाया , जहाॅं तशरीफ़ रखना भी लगे दुश्वार लोगों को ।। बहुत ही […]
लतीफ़े सुन रहा था और हॅंस-हॅंसकर परेशाॅं था , यक़ायक़ याद वो आया कि रोये-रोये चल बैठा ।। अमा […]
जिस्म मेरा , मेरा दिल और रूह भी मेरी चले , तुझ तलक बिन पैर के ही और बिन […]